नेहा दीक्षित
“फ़रवरी में मोदी जी ने कहा था कि उनकी सरकार इन बच्चों को स्वस्थ रख रही है, लेकिन उन बच्चों के लिए स्वस्थ भोजन कौन बना रहा है? मोदी जी ने उनके बारे में कुछ कहा? नहीं. क्योंकि इस नए भारत में खाना बनाना अभी भी महिलाओं की ही ड्यूटी समझी जाती है.”
ये कहना है बिहार के जहानाबाद ज़िले में मिड-डे मील योजना के तहत कुक यानी कि खाना बनाने वाली 40 वर्षीय पूनम का.
साल 2001 में सुप्रीम कोर्ट ने सभी राज्यों को आदेश दिया था कि वो सभी सरकारी प्राइमरी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों को दिन का खाना मुहैया कराएंगे. मिड-डे मील के नाम से मशहूर ये योजना दुनिया भर में स्कूली बच्चों को खाना मुहैया कराने वाली सबसे बड़ी योजना है. इसके तहत भारत भर के 12 लाख 65 हज़ार स्कूलों में लगभग 12 करोड़ बच्चों को स्कूल में दिन का खाना दिया जाता है.
सरकारी आंकड़ों के अनुसार अकेले बिहार में 71 हज़ार सरकारी प्राइमरी और मिडिल स्कूल हैं जिनमें पढ़ने वाले क़रीब एक करोड़ 20 लाख बच्चों को मिड-डे मील दिया जाता है.
और इसके लिए दो लाख 48 हज़ार कुक हैं जिनमें अधिकतर महिलाएं हैं. क़रीब 300 बच्चों का खाना बनाने के लिए हर महिला को एक महीने में कुल 1250 रुपये मिलते हैं. उन्हें रोज़ाना क़रीब 7-8 घंटे काम करना पड़ता है.
पूनम साल 2002 से मिड-डे मील कुक की तरह काम कर रही हैं. अनूसूचित जाति के अंतर्गत आने वाली कहार जाति की पूनम कहती हैं, “पूरी ज़िंदगी मैंने अपने परिवार वालों को ज़मींदारों के खेतों में मज़दूरी करते हुए देखा है. मैं खेतों में काम नहीं करना चाहती थी. 2002 तक उन्हें काम के बदले 10 किलो चावल या कभी एक दिन की 10 रुपये मज़दूरी मिलती थी. उस पैसे का भी मेरे पति शराब पी जाते थे और सिर्फ़ चावल से तो आप ज़िंदगी नहीं गुज़ार सकते हैं.”
पूनम की तरह कई महिलाओं को 2002 में मिड-डे मील बनाने के लिए रखा गया था. उनमें से ज़्यादातर महिलाएं सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग से थीं. पूनम कहती हैं, “ये इज़्ज़त की नौकरी करने और ज़मींदारों के चंगुल से आज़ादी पाने का हम जैसी महिलाओं के लिए एक सुनहरा मौक़ा था और मैंने इसे हथिया लिया.”
इस योजना के तहत पूरे भारत में क़रीब 30 लाख कुक हैं जिनमें 90 फ़ीसदी महिलाएं हैं. क़रीब 40 फ़ीसदी कुक अनुसूचित जाति और अनुसूचित जन-जाति से हैं.
बिहार के एक रेस्त्रां में काम करने वाले अप्रशिक्षित मज़ूदर की न्यूनतम आय 257 रुपये प्रतिदिन है और सातवें वेतन आयोग की सिफ़ारिश के अनुसार न्यूनतम वेतन 18 हज़ार रुपये प्रति माह है. लेकिन पूनम जैसी कुक को इसके 10 गुना कम पैसे पर काम करना पड़ता है. ये वेतन में लैंगिक असमानता की सबसे बदतरीन मिसाल है जो कि सरकारी दिशा-निर्देश के आधार पर किया जा रहा है.
मिड-डे मील योजना के तहत खाना बनाने वाले ‘वॉलन्टियर्स’ हैं ‘वर्कर्स’ नहीं. और इसीलिए उन्हें वेतन नहीं मिलता, ऑनोरेरियम (मानदेय या शुकराना) मिलता है. उन्हें पेंशन या मेडिकल वग़ैरह किसी तरह की कोई सुविधा नहीं मिलती. साल में केवल दस महीने काम मिलता है क्योंकि गर्मी की छुट्टियों में स्कूल दो महीने बंद रहते हैं.
पूनम की दोस्त अंशु पासी जाति से हैं. वो पिछले 15 वर्षों से जहानाबाद के रतनी ब्लॉक के एक स्कूल में मिड-डे मील कुक हैं. अंशु कहती हैं, “खाना बनाना एक स्वैच्छिक काम है, यही अपने आप में पितृसत्तात्मक सोच है. और इस मामले में तो ख़ुद सरकार ऐसा सोचती है.”
जब साल 2002 में मिड-डे मील योजना शुरू की गई थी तब एक बच्चे का खाना बनाने के लिए 60 पैसे की दर से भुगतान होता था. साल 2009 में केंद्र सरकार ने इसे बदल कर अपनी सहायता राशि प्रति माह एक हज़ार रुपये कर दिया था. पिछले क़रीब एक दशक से यही रेट है और राज्य सरकारें अपनी तरफ़ से ऑनोरेरियम के नाम पर कुछ पैसे देती हैं. बिहार उन राज्यों में है जहां सबसे कम ऑनोरेरियम दिया जाता है. जनवरी 2019 तक एक कुक को हर महीने 1250 रुपये दिए जाते थे, वो भी साल में कुल दस महीने.
मिड-डे मील योजना के तहत मिलने वाले पैसे में इस तरह का लैंगिक भेदभाव समाज की वो पितृसत्तात्मक सोच है जिसके तहत महिलाओं के परिश्रम को आसानी से नज़रअंदाज़ किया जा सकता है. चाहे सरकार हो या ठेकेदार दोनों ही इस सोच के कारण महिलाओं का शोषण करते हैं.
वो महिलाओं को इसीलिए इस काम में लगाते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि पुरुषों की तुलना में महिलाएं कम पैसे पर और बहुत बुरे हालात में भी काम करने को आसानी से तैयार हो जाएंगी.
पूनम अब बिहार राज्य विद्यालय रसोइया संघ की एक मुख्य कार्यकर्ता बन गई हैं. ये संघ बिहार के 25 ज़िलों में सक्रिय है.
इस व्यस्था पर तंज़ करते हुए पूनम कहती हैं, “औरतों को हमेशा सबकी सेवा ही करते रहना चाहिए. घर पर बच्चों की देखभाल, मेहमानों की ख़ातिर, सरकार, प्रशासन और देश की सेवा. और इन सबके बदले आपको मिलता है कभी कभार कुछ रुपये. एक ढंग के वेतन वाली नौकरी भी नहीं मिलती.”
मिड-डे मील वर्कर्स ने अदालत में एक रिट पेटिशन दायर कर न्यूनतम वेतन, सामाजिक सुरक्षा, यूनिफ़ॉर्म और मेडिकल सुविधा दिए जाने की अपील की.
इसके जवाब में मार्च 2017 में केंद्रीय मानव संसाधन मंत्रालय के संयुक्त सचिव अजय टिकरे ने बिहार के शिक्षा मंत्रालय के प्रमुख सचिव आरके महाजन को एक पत्र लिखा जिसमें उन्होंने पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट के 2011 के एक फ़ैसले का हवाला दिया. उस फ़ैसले में कहा गया था कि “ये एक पार्ट-टाइम जॉब है क्योंकि दिन भर में केवल एक वक़्त का खाना बनाना है. इसलिए कुक को किसी मज़दूर को दिए जाने वाले न्यूनतम वेतन के बराबर पैसा नहीं दिया जा सकता है.”
इस पर पूनम कहती हैं, “जज और नौकरशाहों को इस बात का बिल्कुल भी अंदाज़ा नहीं है कि मिट्टी तेल के एक स्टोव पर 400 बच्चों का खाना बनाना जिसमें पानी भी बहुत दूर से लाना होता है, सात-आठ घंटे का काम है. ये बिल्कुल स्पष्ट है कि मिड-डे मील की रूप-रेखा तैयार करने में कोई भी महिला शामिल नहीं थी.”
बिहार के कई सरकारी स्कूलों में अब भी स्कूल की सफ़ाई, शौचालय की सफ़ाई और दूसरे कामों के लिए कोई अलग से स्टाफ़ नहीं है. शिक्षक और अधिकारी मिल-जुल कर इनके लिए आवंटित पैसा खा जाते हैं. मिड-डे मील कुक की नौकरी की शर्तों के अनुसार उन्हें राशन लाना होता है, खाना बनाना होता है, बच्चों को परोसना होता है और रसोई को साफ़-सुथरा रखना होता है. लेकिन उन्हें स्कूल के सारे दूसरे काम भी करने होते हैं.
पूनम कहती हैं कि जब उनकी पड़ोसी मुन्नी को कुक की ड्यूटी पर रखा गया तो पहले एक साल तक उनसे सिर्फ़ स्कूल और शौचालय की सफ़ाई करवाई जाती थी क्योंकि वो अनुसूचित जाति से थीं.
इसी तरह से कुछ स्कूलों में ब्राह्मण जाति के लोगों को कुक रखा जाता था और उनसे केवल खाना बनवाया जाता था, जबकि बर्तन धोने और साफ़-सफ़ाई का काम निचली जातियों के कुक से कराया जाता है. उन्हें दाई कहकर पुकारा जाता है जोकि उत्तर भारत में प्रसव में मदद करने वाली दलित महिलाओं के लिए इस्तेमाल किया जाता है.
पूनम कहती हैं कि कई लोग उनसे पूछते हैं कि आप इतने कम पैसे में क्यों काम करती हैं, इसे छोड़ क्यों नहीं देतीं?
लेकिन कुक का काम करने वाली ज़्यादातर महिलाएं अपने परिवार में अकेले कमाने वाली होती हैं और पति शराबी होने के साथ-साथ कोई काम भी नहीं करता है.
‘मार्च, जून में नहीं मिलता वेतन’
पूनम कहती हैं, ”आप मर्दों को बेकार बैठे हुए देख सकते हैं. वो कम पैसे पर काम करने के बजाए बेकार बैठना पसंद करते हैं. उन्हें ख़ुद पर अहंकार बहुत होता है लेकिन महिलाओं को तो घर चलाना होता है.”
और तो और इतने कम पैसे को पाने के लिए भी लगभग पांच महीने का इंतज़ार करना पड़ता है.
पूनम कहती हैं, ”हमलोगों को साल में सिर्फ़ दो बार पैसे मिलते हैं. होली और दीपावली पर. मार्च और जून के महीने में भी कोई पैसा नहीं मिलता है जबिक पूरे साल में हमें सिर्फ़ 20 दिन की छुट्टी मिलती है. शिक्षकों को पूरे 12 महीने का वेतन मिलता है और उन्हें छुट्टियां भी हमसे ज़्यादा मिलती हैं.”
अधिकतर स्कूलों में अब भी मिट्टी के तेल वाले स्टोव पर खाना बनता है. एलपीजी सिलेंडर अभी इन स्कूलों तक नहीं पहुंचे हैं.
लेकिन इन सब परेशानियों के अलावा महिला कुक को आए दिन यौन उत्पीड़न का भी सामना करना पड़ता है. पूनम कहती हैं, “हेडमास्टर महिला कुक को अपने घर बुलाने के लिए दबाव डालते रहते हैं. ग़लत तरह से टच करना बहुत ही आम बात है.”
ऑफ़िस में यौन उत्पीड़न से बचने के लिए 2013 में क़ानून तो बन गया लेकिन अधिकतर स्कूलों में इस तरह की शिकायत करने के लिए इंटरनल कम्पलेंट्स कमेटी है ही नहीं.
भारत में स्वास्थ, शिक्षा और समाज कल्याण से जुड़ी ज़्यादातर योजनाओं में काम करने वाली महिलाएं हैं. इनमें 28 लाख आंगनवाड़ी वर्कर्स, आठ लाख आशा वर्कर्स और क़रीब 30 लाख मिड-डे मील कुक हैं. लेकिन क़रीब 70 लाख इस तरह की महिलाओं के पास यौन उत्पीड़न से बचने के लिए कोई क़ानूनी सुरक्षा नहीं है.
पूनम कहती हैं, “इसका एक ही उपाय है कि हम थाने में शिकायत दर्ज कराएं. लेकिन उसके लिए न हमारे पास पैसे हैं और न ही उतनी ताक़त और पहुंच.”
लेकिन बिहार शिक्षा विभाग के अतिरिक्त सचिव आरके महाजन कहते हैं, “हमारे पास यौन उत्पीड़न की कोई जानकारी नहीं है. इसलिए मैं इस पर कुछ नहीं कह सकता हूं.”
वामपंथी विचारधारा वाले चार मिड-डे मील कुक संघ और कुछ दूसरे संगठनों ने मिलकर सात जनवरी, 2019 को बिहार में राज्य व्यापी बंद का आह्वान किया था. क़रीब 40 दिन के बंद के बाद बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने 18 फ़रवरी 2019 को विधान सभा में मिड-डे मील कुक को मिलने वाले ऑनोरेरियम को बढ़ाकर 1500 रुपये महीना करने की घोषणा की. अब उन्हें 1250 रुपये की जगह 1500 रुपये मिलेंगे.
लेकिन नीतीश सरकार और केंद्र की मोदी सरकार मिड-डे मील स्कीम को निजी हाथों में देने की योजना बना रहे हैं. नीतीश ने बच्चों को दिन का भोजन देने के बजाए सीधे बच्चों के बैंक खातों में पैसे देने की सिफ़ारिश की है. मोदी सरकार अक्षयपत्र जैसे कॉरपोरेट एनजीओ को ये काम देने की सिफ़ारिश कर रहे हैं.
बिहार शिक्षा विभाग के अतिरिक्त सचिव आरके महाजन कहते हैं, “सरकार इससे अवगत है और इस समस्या का कोई सही विकल्प ढूंढने की कोशिश कर रही है.”
फ़तुहा में मिड-डे मील कुक का काम करने वाली सोना कहती हैं, “अब जब कि हमलोगों ने अपने अधिकारों को मांगना शुरू कर दिया है तो वो इस योजना को ही बंद कर देना चाहते हैं. ज़िंदगी भर तो हमने वही किया जो हमें कहा जाता रहा है. लेकिन अब आगे ऐसा नहीं होगा.”
मिड-डे मील कुक के साथ किया जाने वाला बर्ताव, उनकी अनदेखी और उनके उत्पीड़न का असर आने वाले लोकसभा चुनावों पर भी पड़ेगा.
भारत के पितृसत्तात्मक समाज में मिड-डे मील कुक को कोई भी गंभीरता से नहीं लेता है. एक और कुक रमा देवी कहती हैं, “अगर आप हमसे वोट मांगने नहीं आते हैं तो हम वोट ही क्यों दें.”
कुक गुलअफ़शां कहती हैं, “जब उन्हें वोट की ज़रूरत होती हैं वो हमारे शराबी पतियों के पास आते हैं. उन्हें पैसे और शराब की घूस देते हैं. जबकि घर चलाने की पूरी ज़िम्मेदारी हम पर होती है.”
लेकिन अब ये मिड-डे मील कुक भी नेताओं के झूठे वादों से थक चुकी हैं.
बिहार के निज़ामुद्दीनपुरा में कुक का काम करने वाली रमनी कहती हैं, “हममें से कोई नहीं चाहता कि हमारी बेटियां भी ऐसी ज़िंदगी गुज़ारें जैसी हमने गुज़ारी है. मैं मोदी जी से पूछना चाहती हूं कि 1250 रुपये महीने में बेटी पढ़ाओ कैसे संभव है. बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ के प्रोमोशन में उन्होंने करोड़ों रुपये ख़र्च कर डाले लेकिन असल बेटी के पास एक पैसा नहीं है.”
पूनम कहती हैं कि इस बार मिड-डे मील कुक सिर्फ़ उनको अपना वोट देंगी जो उनका वेतन बढ़ाएगा.
पूनम कहती हैं, “बिहार में हमलोग ढाई लाख हैं और हमलोगों के परिवार में कुल 15 लाख वोटर हैं. हमलोग बहुत सोच कर इसका इस्तेमाल करेंगे. पूनम जब ये बात कहती हैं तो वहां मौजूद दूसरी महिलाएं इसके समर्थन में अपना सर हिलाती हैं.
बीबीसी हिंदी द्वारा अप्रैल ३, २०१९ को प्रकाशित हुआ.
लिंक: https://www.bbc.com/hindi/india-47796147
In English: https://thewire.in/labour/mid-day-meal-cooks-women-wages